भाषा और संस्कृति विमर्श संगीत नाटक अकादेमी द्वारा संगोष्ठी
संगीत
नाटक अकादेमी, नई दिल्ली में इन दिनों हिन्दी पखवाड़ा मनाया जा रहा है।
इसी उपलक्ष्य में 3 अक्टूबर को “भाषा और संस्कृति विमर्श” विषयक संगोष्ठी
आयोजित की गई। संगोष्ठी का आरम्भ सरस्वती वंदना से हुआ। कथक केन्द्र के
छात्रों द्वारा प्रस्तुत सरस्वती वंदना को उपस्थित लोगों ने खूब सराहा।
इससे पूर्व सहायक निदेशक (राजभाषा) श्री तेजस्वरूप त्रिवेदी ने विषय
प्रवर्तन करते हुए कहा कि संगीत और भाषा के संयोजन के बिना ब्रह्म की
प्राप्ति सम्भव नहीं है। संगीत और भाषा में ही संस्कृति संगुम्फित होती
है।
संस्कृति मंत्रालय,
भारत सरकार के निदेशक (राजभाषा) डॉ. आर. रमेश आर्या ने अपने सम्बोधन के
आरम्भ में डॉ. आर. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को उद्धृत करते हुए कहा कि “भाषा”
महज एक शब्द नहीं, संस्कृति का पर्याय है। यदि संस्कृति को बचाना है तो
भाषा को बचाना होगा क्योंकि भाषा के मर जाने की स्थिति में संस्कृति को भी
जीवित नहीं रखा जा सकता। उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति का अर्थ केवल
हिन्दी नहीं है। हिन्दी तो राजभाषा और सम्पर्क भाषा है, जिस कारण इसे
विकसित करने का प्रयास किया जा रहा है। भारतीय संस्कृति का अर्थ भारत में
बोली जाने वाली तमाम भाषा और बोलियों से है। भाषा छोटी-बड़ी या अच्छी-बुरी
नहीं होती। यह माँ जैसी होती है। कुछ विद्वान भाषा और बोली में भेद करते
हैं। मेरा मत है कि ऐसा नहीं करना चाहिए। भारतीय समाज में जितनी भी भाषाएँ
और बोलियाँ बोली और बरती जाती हैं, सभी मिलकर भारतीय संस्कृति का निर्माण
करती हैं।
संगीत नाटक
अकादेमी की अध्यक्ष डॉ. संध्या पुरेचा ने अपनी बात रखते हुए कहा कि
संस्कृति, संस्कार और कलाएँ एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। उन्होंने साहित्य
सृजन के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि लेखन सभी भाषाओं का शरीर है।
डॉ. पुरेचा ने चाणक्य को उद्धृत करते हुए कहा कि जो राष्ट्र अपनी भाषा,
अपना शास्त्र त्याग देता है, वह राष्ट्र शीघ्र ही समाप्त हो जाता है।
उन्होंने कहा कि हमें अपने अतीत का बार-बार अध्ययन करना चाहिए क्योंकि
हम-आप आज हैं लेकिन सदियों पूर्व हमारे पूर्वजों ने जो शास्त्र रचे थे,
उनमें उन्होंने जो आदर्श स्थापित किए थे, वह चिरस्थाई हैं। उन्होंने कहा कि
अकादेमी द्वारा भाषा को प्रदर्शन कलाओं से जोड़ते हुए जिस प्रकार भारतीय
संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है, वह सराहनीय है। मैं चाहूँगी कि
यह परिपाटी बनी रहे। आज जिस प्रकार यहाँ भाषा एवं संस्कृति विमर्श आयोजित
किया गया है। उसी प्रकार, दिल्ली के अतिरिक्त हिन्दीतर राज्यों में भी
कलाओं को भाषा से जोड़ते हुए सेमिनार और कार्यशालाओं का आयोजन हो। मैं
समझती हूँ कि इस प्रकार के आयोजनों से न केवल भाषा और कलाओं के बीच सेतु का
निर्माण होगा बल्कि हिन्दीतर राज्यों में राजभाषा के रूप में हिन्दी की
स्वीकार्यता में भी वृद्धि होगी। जब इस प्रकार के आयोजन हिन्दीतर राज्यों
में होंगे तो वहाँ की स्थानीय भाषा के साथ हिन्दी के समन्वय का मार्ग भी
प्रशस्त होगा। यही हमारे माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी का भी
मानना है।
केन्द्रीय
हिन्दी निदेशालय के पूर्व उपनिदेशक डॉ. उमाकांत खुबालकर ने अपनी बात रखते
हुए कहा कि भारत का वर्तमान राजनीतिक और सांस्कृतिक परिदृश्य उथल-पुथल से
भरा है। विधर्मी और राष्ट्रविरोधी तत्त्व देश में अस्थिरता और हिंसा का
वातावरण निर्मित करने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे में राष्ट्रवादियों का
कर्तव्य है कि वह महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धांत का पालन करते हुए
शस्त्रविहीन विचार युद्ध को तत्पर हों। ऐसा हो भी रहा है। डॉ.
खुबालकर के बाद संगीतज्ञ विजय शंकर मिश्र ने अपना वक्तव्य दिया। उन्होंने
कहा कि बोली और भाषा तो बाद में आई, पहले तो संगीत ही जन्मा था। जब भाषा
नहीं थी, बोली नहीं थी, तब मनुष्य ध्वनियों के उतार-चढ़ाव और हाथ-पैर और
चेहरे के हाव-भाव ही के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करता था। ध्वनियों का
यही उतार-चढ़ाव अंततः संगीत की स्वर लहरियों में परिणत हुआ। श्री मिश्र ने
कहा कि साहित्य और संगीत परस्पर सम्बद्ध हैं। आज परिनिष्ठित भाषा के चलन
के कारण बहुत से शब्द आम बोलचाल से गायब हो गए हैं, लेकिन लोकसंगीत ने
उन्हें आज भी संजोकर रखा है। उन्होंने इस संदर्भ में कई उदाहरण प्रस्तुत
करते हुए कहा कि शब्दों को बचाने के लिए कजरी, चैती, बिरहा जैसे लोक
कलारूपों को बचाना होगा। उन्होंने कहा कि रागों का जिस तरह से महत्व है,
वैसे ही पदों का भी अपना महत्व है। गायन को जिस प्रकार शालीन साहित्य की
जरूरत होती है, वैसे ही शब्दों के उच्चारण और शब्दों की मर्यादा का पूरा
ख्याल रखा जाना चाहिए। लयकारी के चक्कर में अगर हम असावधान हुए तो अर्थ का
अनर्थ हो सकता है। हालांकि अपने वक्तव्य के समाहार में उन्होंने कहा कि
भाषा का इस्तेमाल जोड़ने के साथ-साथ तोड़ने में भी किया जा सकता है लेकिन
संगीत केवल जोड़ता है, तोड़ता नहीं।
कथक
नृत्यांगना डॉ. शालीना चतुर्वेदी ने निराला के खण्डकाव्य “राम की शक्ति
पूजा” के विभिन्न उद्धरणों के माध्यम से नौरस को परिभाषित किया। उन्होंने
कहा कि साहित्य जीवन को सरस बनाता है। अवसाद से मुक्ति देता है। सार रूप
में उन्होंने कहा कि भाषा उन्नत होगी तभी संस्कृति का विकास भी होगा। बिना
भाषा के संस्कृति अथवा कला की कल्पना कोरी गप्प ही होगी। अंत
में सभी वक्ताओं के प्रति आभार व्यक्त करते हुए सहायक निदेशक (राजभाषा)
श्री तेजस्वरूप त्रिवेदी ने कहा कि अकादेमी का प्रयास होगा कि ऐसे विमर्श
देश के अन्य हिस्सों में भी होते रहें जिससे भाषा, साहित्य, कला और
संस्कृति के प्रति लोगों में अंतरानुभागीय विवेक और समझ पैदा हो सके। रजनीकांत हिंद की रिपोर्ट
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