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कुण्‍डलपुर में तीन मुनि संघों की मंगल अगवानी करने उमड़ी श्रावकों की भीड़.. गुरू शिष्य मिलन के साक्षी बने हजारों भक्त..

 कुण्‍डलपुर में बड़े बाबा के साथ निर्माणाधीन जिनालय के साथ यहां विराजमान आचार्य भगवन विद्यासागर जी महाराज के दर्शन करने प्रतिदिन भक्तों का सैलाव कुंडलपर में उमड़ रहा है वहीं नए वर्ष की पूर्व बेला में देश के हर हिस्सें से कड़ाके की ठंड की परवाह किए बिना गुरू भक्तों का यहां पहुचने का सिलसिला जारी है..


गुरूवार को प्रातः एक ही वेशभूषा में अनेक युवा कुण्‍डलपुर पहुंचे, जो रायसेन जिला के बाडी से 10 दिन में 300 किलोमीटर की पदयात्रा करते हुए आये थे, इन सबका कुण्‍डलपुर कमेटी के द्वारा स्वागत किया गया। कुण्‍डलपुर पहुंचते पहुंचते इनका काफिला 300 से अधिक पहुंच गया था, सभी ने बडे बावा व छोटे बावा के दर्शन कर पुण्‍यअर्जन किया।  दोपहर में मुनिश्री अक्षय सागर, मुनि श्रीसंभव सागर, मुनिश्री निरापद सागर जी महाराज के साथ कुछ 14 पिच्‍छी कुण्‍डलपुर पहुंची, जहां मुनिसंघो की भव्‍य अगवानी की गई। तीनों मुनिसंघ ने छोटे बावा के दर्शन किये, अगवानी में कुण्‍डपुर में रंगोली सजाई गई, दिव्‍यघोष के साथ बडे बावा व छोटे बाबा के जयकारों से सारा कुण्‍डलाकार पर्वत गूंज उठा। गुरू शिष्‍य के इस मिलन को हर कोई अपने मोबाईल कैमरे में कैद कर रहा था। आज स्‍वयं सेवक व्‍यवस्‍था में जबेरा, मडियादो, रजपुरा, हटा के युवाओ की सराहनीय भूमिका रही, स्‍वयंसेवक समिति प्रभारी टीम ने सभी युवा का आभार माना।  आज आचार्यश्री को आहार दान का सौभाग्य कुंडलपुर कमेटी के कोषाध्यक्ष चंद्रकुमार अभिषेक जैन खजरी परिवार को प्राप्त हुआ।

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सभी के प्रति करुणा भाव रखना चाहिए.. आचार्य श्री

दूसरों के प्रति करुणा भाव रखने से भी आपका कल्याण हो सकता है इसलिए आत्मचिंतन ही नहीं, दूसरों के प्रति भी अच्छा व्यवहार रखना चाहिए। स्वयं के साथ-साथ दूसरों के भी दुख दूर करने का प्रयास करना चाहिए। संत शिरोमणी आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ने आज(30 दिसंबर 21)  कुंडलपुर तीर्थ क्षेत्र में हजारों श्रद्धालुओं के बीच कहीं, उन्होंने कहा कि हम प्राय सुनते हैं कि ध्यान करने से कर्मो की निर्जरा होती हैं क्योंकि ध्यान से ही संसार बना है। ध्यान नहीं करने से जटिलता आती है और ध्यान से मुक्ति सर्वश्रेष्ठ है। जंगल में आग लगी है लाखों कीट, पतंगे, जीव, हरियाली नष्ट होने वाली है ऐसे में वहां तपस्या करने वाले साधु के मन में उन जीवों की पीड़ा अनुभव कर करुणा भाव रूपी पीड़ा उत्पन्न होती है तो इस प्रकार पर की पीड़ा करना स्वयं का कल्याण करना ही होंगा।

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मिथ्यात्व के ऊपर जब तक यथार्थ श्रद्धान नहीं है, सम्यक दर्शन प्राप्त नहीं होगा, मिथ्यात्व और सम्यक्त्व जब तक है, वीतराग मार्ग नहीं है, ऐसा समयसार में वर्णित है। मिथ्यात्व के कारण ही संसार है इस प्रकार श्रद्धान करने का नाम ही सम्यक दर्शन है। "स्व-पर भेद विज्ञान" पर को पहचानो तो अपनी रक्षा होगी सौभाग्य का अर्जन करो दूसरे के लिए। आत्म ध्यान करने में पर का भी ध्यान होगा।अपनी ही आत्मा क्यों चुनते हो? दूसरे में क्या बुराई है? आत्मा-आत्मा रटोगे और पर-पर करोगे तो भी आत्मा नहीं मिलेगी, टॉर्च के द्वारा आप दूसरों को देखते हो, स्वयं को भी देखो। ज्यादा टॉर्चर करोगे तो आत्मा मर जाएगी।
Be Soft Corner, कॉर्नर के ऊपर एक्सीडेंट होते हैं इसलिए कॉर्नर को राउंड कर दिया जाता है पर की बात ही कॉर्नर है और वह हार्ड है दोनों एक दूसरे से मिल जाओ। समयसार में केवल आत्मा की बात ही नहीं कही अ-जीव का अधिकार भी वर्णित किया है।

 आचार्यश्री ने कहां कि संसार अ-जीव है, अजीब नही है। जिस कारण से आपको कष्ट हो रहा है वह दूसरे के लिए कैसे साधक हो सकता है? अ-जीव को पहचाने बिना जीव को सही ज्ञान नहीं हो सकता, इसी तरह पर को जाने बिना दया का भाव नहीं आ सकता। दया के अभाव में संसार है। अ जीव को पहचानने से आत्मा पहचान में आ जाएगी। ध्यान का मतलब बैठना नहीं होता किसका त्याग करने से ध्यान होता है इस को ध्यान में लाना चाहिए। कहते हैं,ध्यान करने से कर्मों की निर्जरा होती है।  मृत्यु अनिवार्य है जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है आपको मुक्ति संसार से चाहिए पर आप ध्यान से मुक्ति चाहते हो जबकि ध्यान से ही संसार होता है। हमें ध्यान करना है क्यों और किसका ?  हम सबके पास आत्म तत्व है हमारी पद्धति अलग है आत्मा को लेकर मैं अपनी आत्मा को ही आत्मा मानूं और इनको जड़ मानू, ऐसा क्यों? जबकि इनके धर्म करने से भी हमारे कर्मों की निर्जरा होगी,क्योंकि हमारे गुण समान है।
 आचार्यश्री ने कहां कि ध्यान से मुक्ति होती है, किसी वैयक्तिक के ध्यान करने से मुक्ति नहीं होती। मैं अपनी आत्मा को ही आत्मा मानूं और अन्य को नहीं?, ऐसे धर्म करने से हमारे कर्मों की निर्जरा नहीं होगी हम सब के पास गुण समान हैं। हम अपने अस्तित्व के साथ दूसरे के अस्तित्व के बारे में भी सोचें, राम और रावण में यही अंतर था। आप अपना मान नहीं छोड़ सकते, फिर दूसरे के बारे में अभिमान भी तो मत करो। दूसरे के बिना आपका अभिमान पलता ही है। हमें अपने साथ-साथ दूसरों के कल्याण के बारे में भी विचार करना चाहिए।

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